मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

एक नजर मेरी बात पर ....

मै पहली बार पोस्ट कर रही हू ,ब्लॉग पढती हूँ ,अभी कुछ दिन पहके वंदना जी की पोस्ट आई थी ,रचना से ज्यादा बोल्ड पाठक हो गए,रचना के भाव यथार्थ वादी थे. वैसे मैं भी सहमत हूँ, शब्दों के थोड़े से परिवर्तन से भी मूल भावना को प्रस्तुत किया जा सकता था. पर टिप्पणियों की भाषा में जो शब्द प्रयोग किये गए वह कहाँ तक उचित थे.में उन रचानाकारो से पूछती हू जब कोई उन्हें टिपण्णी करता है, उनके लेखन की तारीफ करता है, और जब उसे जवाब देते है तो अपनी बुध्दमतिता का प्रदर्शन उन रचनाओ में क्यूँ नहीं करते जिन्हें गीत कविता लेख की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता . तथा उन्हें चर्चा मंच जानें किस किस मंच मैं स्थान मिलाता है. वहां भी अरे वाह,अति सुन्दर ,कर तारीफों के पुल बाँध देते है,अच्छी रचनाओ में टिप्पणी करना भी गवारा नहीं होता. मैं इस बात से भी सहमत हूँ जब मुझे नहीं टिप्पणी दी तो मै क्यों दूँ. पर टिप्पणी करते वक्त रचना की गुणवक्ता को भी ध्यान में रखिये. यह उस रचनाकार के लिए भी उचित होगा .ब्लॉग जगत में अच्छे लेखक भी है उदाहरण स्वरूप ...रश्मि प्रभा...चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ डॉ. जेन्नी शबनम Anupama Tripathiसतीश सक्सेनाडॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)प्रवीण पाण्डेय विक्रम७ Maheshwari kaneriAtul श्रीवास्तव
पुण्य प्रसून बाजपेयी

आज, वक्त के इस व्यस्ततम जंक्शन पर
जबकि सबसे सर्द हो चले हैं
गुजरते कैलेंडर के आखिरी बचे डिब्बे
जहाँ पर सबसे तंग हो गयी हैं
धुंध भरे दिनों की गलियाँ
सबसे भारी हो चला है
हमारी थकी पीठों पर अंधेरी रातों का बोझ
और इन रातों के दामन मे
वियोग श्रंगार के सपनों का मीठा सावन नही है
इन जागती रातों की आँखों मे
हमारी नाकामयाबी की दास्तानों का बेतहाशा नमक घुला है
इन रातों के बदन पर दर्ज हैं इस साल के जख्म
वो साल
जो हमारे सीनों पर से किसी शताब्दी एक्सप्रेस सा
धड़धड़ाता गुजर गया है

और इससे पहले कि यह साल
आखिरी बूंदे निचोड़ लिये जाने के बाद
सस्ती शराब की खाली बोतल सा फेंक दिया जाय
कहीं लाइब्रेरी के उजाड़ पिछवाड़े मे,
हम शुक्रिया करते हैं इस साल का
कि जिसने हमें और ज्यादा
बेशर्म, जुबांदराज और खुदगर्ज बना दिया
और फिर भी हमें जिंदगी का वफ़ादार बनाये रखा

इस साल
हम शुक्रगुजार हैं उन प्रेमिकाओं के
जिन्होने किसी मुफ़लिस की शरीके-हयात बनना गवारा नही किया
हम शुक्रगुजार हैं उन नौकरियों के
जो इस साल भी गूलर का फूल बन कर रहीं
हम शुक्रगुजार हैं उन धोखेबाज दोस्तों के
जिन्होने हमें उनके बिना जीना सिखाया
हम शुक्रगुजार हैं जिंदगी के उन रंगीन मयखानों के
जहाँ से हर बार हम धक्के मार के निकाले गये
हम शुक्रगुजार हैं उन क्षणजीवी सपनों का
जिनकी पतंग की डोर हमारे हाथ रही
मगर जिन्हे दूसरों की छतों पर ही लूट लिया गया
उन तबील अंधेरी रातों का शुक्रिया
जिन्होने हमें अपने सीने मे छुपाये रखा
और कोई सवाल नही पूछा
उन उम्रदराज सड़कों का शुक्रिया
जिन्होने अपने आँचल मे हमारी आवारगी को पनाह दी
और हमारी नाकामयाबी के किस्से नही छेड़े !

और वक्त के इस मुकाम पर
जहाँ उदास कोहरे ने किसी कंबल की तरह
हमको कस कर लपेट रखा है
हम खुश हैं
कि इस साल ने हमें सिखाया
कि जरूरतों के पूरा हुये बिना भी खुश हुआ जा सकता है
कि फ़टी जेबों के बावजूद
सिर्फ़ नमकीन खुशगवार सपनों के सहारे जिंदा रहा जा सकता है
कि जब कोई भी हमें न करे प्यार
तब भी प्यार की उम्मीद के सहारे जिया जा सकता है।

और इससे पहले कि यह साल
पुराने अखबार की तरह रद्दी मे तोल दिया जाये,
हम इसमें से चंद खुशनुमा पलों की कटिंग चुरा कर रख लें
और शुकराना करें कि
खैरियत है कि उदार संगीनों ने
हमारे सीनों से लहू नही मांगा,
खैरियत है जहरीली हवाओं ने
हमारी साँसों को सिर्फ़ चूम कर छोड़ दिया,
खैरियत है कि मँहगी कारों का रास्ता
हमारे सीनों से हो कर नही गुजरा,
खैरियत है कि भयभीत सत्ता ने हमें
राजद्रोही बता कर हमारा शिकार नही किया,
खैरियत है कि कुपोषित फ़्लाईओवरों के धराशायी होते वक्त
उनके नीचे सोने वालों के बीच हम नही थे,
खैरियत है कि जो ट्रेनें लड़ीं
हम उनकी टिकट की कतार से वापस लौटा दिये गये थे,
खैरियत है कि दंगाइयों ने इस साल जो घर जलाये
उनमे हमारा घर शामिल नही था,
खैरियत है कि यह साल भी खैर से कट गया
और हमारी कमजोरी, खुदगर्जी, लाचारी सलामत रही।

मगर हमें अफ़सोस है
उन सबके लिये
जिन्हे अपनी ख्वाहिशों के खेमे उखाड़ने की मोहलत नही मिली
और यह साल जिन्हे भूखे अजगर की तरह निगल गया,
और इससे पहले कि यह साल
इस सदी के जिस्म पर किसी पके फ़फ़ोले सा फूटे
आओ हम चुप रह कर कुछ देर
जमीन के उन बदकिस्मत बेटों के लिये मातम करें
जिनका बेरहम वक्त ने खामोशी से शिकार कर लिया।

आओ, इससे पहले कि इस साल की आखिरी साँसें टूटे
इससे पहले कि उसे ले जाया जाय
इतिहास की जंग लगी पोस्टमार्टम टेबल पर
हम इस साल का स्यापा करें
जिसने कि हमारी ख्वाहिशों को, सपनों को बाकी रखा
जिसने हमें जिंदा रखा
और खुद दम तोड़ने से पहले
अगले साल की गोद के हवाले कर दिया

आओ हम कैलेंडर बदलने से पहले
दो मिनट का मौन रखें!!


विक्रम जी की इस रचना में पहली वार कोई टिप्पणी नहीं मिली ,दूसरी वार एक ,तीसरी बार इसी रचना को पोस्ट किया ३१, वह भी तब जब दूसरो को टिप्पणी की.
वैसे विक्रम जी लेखन की निरंतरता को नहीं बनाए रखते,पुरानी पोस्टो को दुबारा पोस्ट कर देते हैं,पर जब भी नई रचना आती है,कुछ नया सोचने के लिए मजबूर कर देते है .तथा दूसरो की रचना में टिप्पणी भी कम करते है, कारण वह ही जाने.

वह सुनयना थी........


वह सुनयना थी
कभी चोरी-चोरी मेरे कमरे मे आती
नटखट बदमाश
मेरी पेन्सिले़ उठा ले जाती
और दीवाल के पास बैठकर
अपनी नन्ही उगलियों से
भीती में चित्र बनाती
अनगिनत-अनसमझ,
कभी रोती कभी गाती
वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
मुझे देख सकुचाई थी

नव-पल्लव सी अपार शोभा लिये

पलक संपुटो में लाज को संजोये

सुहाग के वस्त्रों में सजी
उषा की पहली किरण की तरह
कॉप रही थी
जाने से पहले मांगनें आयी थी ,वात्सल्य भरा प्यार
जो अभी तक मुझसे पा रही थी
वह फिर आयी थी मेरे कमरे में

दबे पाँव
डरी सहमी सी

उस कबूतरी की तरह

जिसके कपोत को बहेलिये ने मार डाला था
संरक्षण विहीन
भयभीत मृगी के समान
मेरे आगोश में समां गयी थी
सर में पा ,मेरा ममतामईं हाथ

आँसुओं के शैलाब से

मेरा वक्षस्थल भिगा गयी थी

सफेद वस्त्रों में उसे देख ,मैं समझ गया था

अग्नि चिता में

वह अपना

सिंदूर लुटा आयी थी

वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
नहीं इस बार दरवाजे पर
दबे पाँव नहीं

कोई आहट नहीं

कोई आँसू नहीं
सफेद चादर से ढकी

मेरे ड्योढी में पडी थी

मैं आतंकित सा,
काँपते हाथों से
उसके सर से चादर हटाया था

चेहरे पे अंकित थे वे चिन्ह
जो उसने, वासना के
सडे-गले हाथो से पाया था
मैने देखा

उसकी आँखों में शिकायत नहीं,स्वीकृति थी
जैसे वह मौन पड़ी कह रही हो
हे पुरूष, तुम
हमें

माँ
बेटी
बहन
बीबी
विधवा
और वेश्या बनाते हो
अबला नाम भी तेरा दिया हैं
शायद इसीलिए
अपने को समझ कर सबल
रात के अँधेरे में,रिश्तो को भूल कर
भूखे भेडिये की तरह
मेरे इस जिस्म को, नोच-नोच खाते हो
क्या कहाँ ,शिक़ायत और तुझसे
पगले, शायद तू भूलता है
मैने वासना पूर्ति की साधन ही नहीं
तेरी जननी भी हूँ
और तेरी संतुष्ति,मेरी पूर्णता की निशानी हैं
मैं सहमा सा पीछे हट गया
उसकी
आँखों में बसे इस सच को,मैं नहीं सह सका
और वापस आ गया ,अपने कमरे में
शायद मैं फिर
करूँगा
इंतजार
किसी सुनयना का
वह सुनयना थी

और अपने धीर जी ,सच कहे जो लिखते है ,खुद भी उसे पढते है या नहीं कह नहीं सकती ,पर उनकी रचना को गीत ,कविता गजल की श्रेणी में, मै तो नहीं रख सकती . पर वह दूसरी को टिपियाते बहुत है,और लोग उन्हें,यह सब ब्लॉग की रेटिग बढाने के अलावा क्या है,साहित्य सेवा कहना क्यां उचित होगा, पहले भी कह चुकी हूँ,जो आप के लेखन को नहीं पढते ,आप भी उन्हें पढे,पर सही व् खराब रचना की अपनी टिप्पणी में उचित व्याख्या तो करें। धीर जी ने अभी अपनी रचना का पोस्टमार्टम किया है,यही पूर्व में कर देते व् अन्य रचनाओ में भी ,उनकी नई रचना कवि जैसी बात अन्य रचनाओ में देखने को नहीं मिला आशा है आगे भी इस तरह की रचनाये ही उनके ब्लॉग में मिलेगी .

कवि,...





कवि

क्या अपनी, परिभाषा लिख दूँ
क्या अपनी,अभिलाषा लिख दूँ
शस्त्र कलम को, जब भी कर दूँ
तख्तो त्ताज ,बदल के रख दूँ

केंद्र
बिंदु, मष्तिक है मेरा
नये विषय का , लगता फेरा
लिखता जो , मन मेरा करता

मेरी कलम से , कायर डरता

क्रोधित होकर कभी न लिखता

सदा सहज बन कर ही रहता
विरह
वेदना ,पर भी लिखता
प्यार भरी भी , रचना करता

कभी
नयन को,रक्तिम करता
कभी मौन हूँ, सब को करता
कभी वीरता के , गुण गाता
दुर्गुण को भी , दूर भगाता

मन
मेरा है, उड़ता रहता
अहंकार से , हरदम लड़ता
गुनी जनीं का ,आदर करता
सारा जग,कवि मुझको कहता

आँसुओं की कीमत

इन आसुओं कीमत तुम न, समझ सकोगी
मुझसे यूं दूर रहकर,तुम भी न जी सकोगी

तडपते थे प्यार में हम इक दूसरे के ऐसे
वो दिन भुला के यारा, जाओगे बोलो कैसे

वादे किये थे हमने,होगे जुदा नहीं हम
कैसे सहोगी जाना, मुझसे जुदाई का गम

मुझको यूँ करके तन्हा तुम जा कहाँ रही हो
जानेमन सोच लेना, तुम प्यार खो रही हो

बदनाम रास्तो में भला क्यां तुम्हे मिलेगा
मंजिल मिलेगी फिर भी,यह प्यार न मिलेगा

मुझे यूं रुला के तुमको कैसे,सुकूँ मिलेगा
तुझे हर खुशी में अपनें,मेरा दर्द ही मिलेगा

तेरी याद तो हमेशा मेरे साथ ही रहेगी
गुमनाम ''धीर'' होगा,ये पीर तुम सहोगी



इसके पहले यही रचना कुछ इस तरह थी ,खूब तारीफ मिली देखे -



मेरी आँसुओं की कीमत तुम न चुका सकोगी,
मेरे दिल से दूर रहकर तुम भी जी न सकोगी!

तडपते थे हम एक दिन अपने प्यार में कभी,
मुझको भुला के तुम वह दिन न भुला सकोगी!

खाई थी कसमे निभाने की न होगें जुदा कभी,
मुझको जुदा करके तुम जुदाई न सह सकोगी!

मुझको छोड़ कर यूँ तन्हा तुम चल दिए कहाँ,
मेरी न सही तो दुसरे के भी तुम न हो सकोगी!

उन रास्तों पर न जाओ जो कभी बदनाम रहें है,
तुम्हे मंजिल तो मिलेगी पर मुझे न मिल सकोगी!

तुमने बहुत तडपाया मुझको संकू तुमको न मिलेगा,
जो जख्म दिया है मुझको उन्हें तुम भर न सकोगी!

अपने ही वीरानो में हम हमेंशा के लिए खो जायेगें,
चाहे जितना करो तलाश तुम "धीर" को पा न सकोगी!





आशा है अन्यथा न लेते हुए आप सभी गुनी जन मेरी बातो पर ध्यान देने का कष्ट करेगे.
नंदित्ता